वैदिक साहित्य | Vedic Literature
- K.K. Lohani
- Jul 15, 2020
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Updated: Mar 14, 2021

वैदिक साहित्य (Vedic Literature)
प्राचीन काल से ही भारत के धर्म प्रधान देश होने के कारण यहाँ प्रायः तीन धार्मिक धारायें – वैदिक, जैन एवं बौद्ध प्रवाहित हुई। वैदिक धर्म ग्रंथ को ब्राह्मण धर्म ग्रन्थ भी कहा जाता है। ब्राह्मण धर्म ग्रंथ के अंतर्गत वेद, उपनिषद, महाकाव्य तथा स्मृति ग्रंथों को शामिल किया जाता है। वैदिक साहित्य ‘श्रुति’ नाम से विख्यात है। जिसका अर्थ है सुनकर लिखा हुआ साहित्य। वैदिक साहित्य के अंतर्गत चारों वेद, विभिन्न ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक एवं उपनिषद् आते है। वैदिक साहित्य किसी मनुष्यों द्वारा लिखा नहीं गया इस कारण वैदिक साहित्य को ‘अपौरुषेय’ और ‘नित्य’ कहा जाता है।
इस प्रकार वैदिक साहित्य से सम्बंधित अनेकों प्रश्न प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे जाते है। इन्हीं परीक्षाओं को ध्यान में रखते हुए कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों को दिया जा रहा है जो परीक्षा की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है –
वेद
वैदिक शब्द ‘वेद’ से बना है।
वेद का अर्थ है – ज्ञान
वेद शब्द संस्कृत के ‘विद्’ धातु से बना जिसका अर्थ होता है – जानना
वेदों के संकलनकर्ता कृष्ण द्वैपायन थे।
कृष्ण द्वैपायन को वेदों के पृथक्करण-व्यास के कारण वेदव्यास भी कहा जाता है।
वर्तमान में वैदिक साहित्य जिस रूप में उपलब्ध है, उसे संहिता कहा जाता है। संहिता का अर्थ होता है – संकलन
वेदों से ही हमें आर्यों के विषय में प्रारंभिक जानकारी मिलती है।
आर्यो को लिपि का ज्ञान नहीं था अतः वे अपने ज्ञान को सुनकर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाते थे। इसीलिए वैदिक साहित्य को ‘श्रुति साहित्य’ कहा जाता था।
वेदों की संख्या चार है – ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद
पहले के तीन वेदों ऋग्वेद, सामवेद एवं यजुर्वेद को ‘वेदत्रयी’ कहा जाता है।
1. ऋग्वेद
ऋग्वेद भारत की ही नहीं सम्पूर्ण विश्व की प्राचीनतम रचना है।
यह आर्यों का सबसे प्राचीन ग्रंथ है।
ऋक् का अर्थ होता है – छन्दोवद्ध रचना या श्लोक।
ऋग्वेद के सुक्त विविध देवताओं की स्तुति करने वाले भाव भरे गीत है। इनमें भक्ति भाव की प्रधानता है।
ऋग्वेद की रचना संभवतः सप्तसैधव प्रदेश में हुई है।
ऋग्वेद में सप्त-सैंधव को ‘देवकृत योनी’ कहा गया है।
ऋग्वेद में देवासुर संग्राम का वर्णन है।
इसमें कुल 10 मण्डल, 1028 सूक्त एवं 10580 मंत्र है।
सूक्तों के पुरुष रचयिताओं में गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज और वशिष्ट प्रमुख है।
सूक्तों के महिला रचयिताओं में लोपामुद्रा, घोषा, अपाला, विश्ववारा, सिकता, शचीपौलोमी और कक्षावृत्ति प्रमुख हैं।
लोपामुद्रा क्षत्रीय वर्ण की थी किन्तु उनकी शादी अगस्त्य ऋषि से हुई थी।
मंत्रों को ऋचा भी कहा जाता है।
सुक्त का अर्थ है – ‘अच्छी उक्ति’।
ऋग्वेद के मंत्रों का उच्चारण करके जो पुरोहित यज्ञ सम्पन्न कराता था उसे ‘होता’ कहा जाता था।
ऋग्वेद के तीन पाठ मिलते है। 1. साकल – 1017 सूक्त है। 2. बालखिल्य – इसमें कुल 11 सुक्त है। इसे आठवें मण्डल को परिशिष्ट माना जाता है। 3. वाष्कल – इसमें कुल 56 सुक्त है परन्तु यह उपलब्ध नहीं है।
ऋग्वेद के 2 से 7 तक मण्डल सबसे पुराने माने जाते है। पहला, आठवा नौवा और दसवां मण्डल परवर्ती काल का है। दसवां मण्डल, जिसमें पुरुष सूक्त भी है। सबसे बाद का है।
ऋग्वेद के दूसरे से सातवें तक के मंडल को गोत्रमंडल या वंशमंडल या ऋषिमंडल कहा जाता है।
ऋग्वेद के तीसरे मंडल में लोकप्रिय गायत्री मंत्र (सावित्री) का उल्लेख किया गया है। इस मंडल के रचयिता विश्वामित्र है।
चौथे मण्डल के तीन मंत्रों की रचना तीन राजाओं ने की है – त्रासदस्यु, अजमीढ़ तथा पुरमीढ़।
ऋग्वेद का सातवां मंडल वरुण देवता को समर्पित है। इस मंडल की रचना वशिष्ट ने की है।
नवा मंडल सोम को समर्पित है। अतः इसे सोममण्डल कहा गया है।
‘मैं कवि हूँ, मेरे पिता वैद्य हैं, माता अन्न पीसने वाली है’’ कवि अंगिरस का यह प्रसिद्ध कथन नौवें मंडल में है।
दसवें मंडल के ‘पुरुष सूक्त’ में पहली बार चारों वर्णों का एक साथ उल्लेख मिलता है।
ऋग्वेद वेद के आठवें मंडल में मिली हस्तलिखित प्रतियों के परिशिष्ट को ‘खिल’ कहा गया है।
ऋग्वेद में गंगा शब्द का उल्लेख एक बार तथा यमुना शब्द का उल्लेख तीन बार मिलता है।
ऋग्वेद में कश्मीर की एक नदी मरुद्वृधा का तथा हिमालय की एक चोटी मूजवन्त का उल्लेख है।
भरत कबीले के राजा सुदास एवं पुरु कबीले के मध्य हुए ‘दशराज्ञ युद्ध’ का वर्णन मिलता है।
मृत्यु निवारक मंत्र त्र्यम्बक-मंत्र या मृत्युंजय मंत्र ऋग्वेद में ही वर्णित है।
असतो मा सदगमय वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है।
इस वेद में गाय के लिए ‘अहन्या’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
इस वेद में आर्यों के निवास स्थान के लिए सर्वत्र ‘सप्त सिन्धवः’ शब्द का प्रयोग हुआ है।
ऋग्वेद में ‘वाय’ शब्द का प्रयोग जुलाहा तथा ‘ततर’ शब्द का प्रयोग करघा के लिए किया गया है।
ऋग्वेद में कृषि शब्द का उल्लेख 24 बार हुआ है।
पतंजलि के अनुसार ऋग्वेद की 21 शाखाएँ है।
ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ है – शाकल, वाष्कल, आश्वलायन, शांखायन तथा मांडूकायन।
पारसियों के ग्रंथ ‘जिंद अवेस्ता’ में जिस ‘अहुरमज्दा’ का वर्णन मिलता है, वह असुरों का देवता था।
ऋग्वेद में लोहे का उल्लेख नहीं है।
लोहा का ज्ञान 1000 ई॰पू॰ के आस पास एटा जिले के ‘अतरंजीखेड़ा’ से प्राप्त होता है।

ब्राह्मण ग्रंथ
ये वेदों के गद्य भाग है
यज्ञों एवं कर्मकाण्डों के विधान एवं इसकी क्रियाओं को भली-भांति समझने के लिए ही इस ब्राह्मण ग्रंथ की रचना हुई है।
ब्रह्म का शाब्दिक अर्थ है – यज्ञ अर्थात् यज्ञ के विषयों का अच्छी तरह से प्रतिपादन करने वाले ग्रंथ ही ‘ब्राह्मण ग्रंथ’ कहे गये।
इन ग्रंथों में वैदिक कर्मकाण्डों, पूजा-पद्धति, अनुष्ठानों आदि के साथ विभिन्न रोचक गाथाओं का संकलन है।
ब्राह्मण ग्रंथों में हमें परीक्षित के बाद और बिम्बिसार के पूर्व की घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है।
ऋग्वेद के दो ब्राह्मण है – 1. ऐतरेय तथा 2. कौषीतकी
ऐतरेय ब्राह्मण के संकलनकर्ता ‘महिदास’ थे। उनकी मां का नाम ‘इतरा’ था।
ऐतरेय ब्राह्मण में अथाह, अनन्त जलधि और पृथ्वी को घेरने वाले समुद्र का उल्लेख है।
ऐतरेय ब्राह्मण में राज्याभिषेक के नियम दिये गये है।
कौषीतकि ब्राह्मण को शांखायान ब्राह्मण भी कहते है।
कौषीतकी ब्राह्मण के संकलनकर्ता ‘कुषितक’ ऋषि थे। कौषीतकी अथवा शंखायन ब्राह्मण में विभिन्न यज्ञों का वर्णन मिलता है।
कौषीतकि ऋग्वेद की वाष्कल शाखा से सम्बंधित है। यह 30 अध्यायों एवं 226 खण्डों में विभक्त है।
आरण्यक
आरण्यक शब्द का अर्थ वन में लिखा जाने वाला और इन्हें वन पुस्तक कहा जाता है। यह मुख्यतः जंगलों में रहने वाले संन्यासियों और छात्रों के लिए लिखी गई थी।
इनमें दार्शनिक सिद्धांतों और रहस्यवाद का वर्णन है।
ऋग्वेद के दो आरण्यक है – ऐतरेय और कौषीतकी।
उपनिषद्
उपनिषद् का शाब्दिक अर्थ गुरु के पास बैठकर ज्ञान सीखना था।
ब्रह्म विषयक होने के कारण इसे ब्रह्मविद्या भी कहा जाता है।
उपनिषदों में आत्मा-परमात्मा एवं संसार के संदर्भ में प्रचलित दार्शनिक विचारों का संग्रह मिलता है।
उपनिषद् के अनुसार आत्मा परमात्मा का ही अंश है।
ये वेदों के अंतिम भाग है अतः इन्हें वेदांत भी कहा जाता है।
इनका रचना काल 800 से 500 ई॰पू॰ के मध्य है।
कुल उपनिषदों की संख्या 108 है। परन्तु दस उपनिषद ही विशेष महत्व के है और इन्हीं पर आदिगुरु शंकराचार्य ने भाष्य लिखा है।
दस उपनिषद – ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, छांदोग्य, वृहदारण्यक, ऐतरेय एवं तैत्तिरीय है।
इसमें मुख्यतः आत्मा और ब्रह्मा का वर्णन है।
ऋग्वेद के दो उपनिषद् ‘ऐतरेय’ और ‘कौषीतकी’ है।
2. सामवेद
‘साम’ का अर्थ होता है – गायन
इसमें कुल मंत्रों की संख्या 1549 है।
इन मंत्रों में इसके मात्र 75 मंत्र ही है, शेष ऋग्वेद से लिए गये है।
सामवेद के मंत्रों का गायन करने वाला ‘उद्गाता’ कहलाता है।
सामवेद में संकलित मंत्रों को देवताओं की स्तुति के समय गाया जाता है।
सप्त स्वरों का उल्लेख सामवेद में मिलता है – ‘सा, रे, गा, ….., म।
भारतीय संगीत के इतिहास के क्षेत्र में सामवेद का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसे भारतीय संगीत का मूल कहा जाता है।
सामवेद की मुख्यतः तीन शाखाएँ है – कौमुथ, रामायनीय, एवं जैमिनीय
सामवेद के मूलतः दो ब्राह्मण है – ताण्ड्य और जैमिनीय
ताण्ड्य ब्राह्मण 25 अध्यायों में विभक्त है इसलिए इसे पंचविश भी कहा जाता है।
जैमिनीय ब्राह्ममण में याज्ञिक कर्मकाण्ड का वर्णन है।
सामवेद के दो आरण्यक है – जैमिनीय व छांदोग्यारण्यक
सामवेद के दो उपनिषद् है – छांदोग्य उपनिषद् एवं जैमिनीय उपनिषद्।
छांदोग्य उपनिषद् सबसे प्राचीन उपनिषद् माना जाता है।
देवकी पुत्र ‘कृष्ण’ का सर्वप्रथम उल्लेख इसी में है।
छांदोग्य उपनिषद् में उद्दालक आरुणि एवं उनके पुत्र श्वेतकेतु के बीच विख्यात संवाद का वर्णन है।
सामवेद व अथर्ववेद के कोई आरण्यक नहीं है।
3. यजुर्वेद
यह एक कर्मकाण्डीय वेद है।
इसमें यज्ञो से सम्बंधित अनुष्ठान विधियों का उल्लेख है।
यह वेद गद्य एवं पद्य दोनों में रचित है।
गद्य को ‘यजुष’ कहा गया है।
यजुर्वेद का अंतिम अध्याय ईशावास्य उपनिषद् है। जिसका सम्बंध आध्यात्मिक चिंतन से है।
यह 40 अध्यायों में विभाजित है, इसमें कुल 1990 मंत्र संकलित है।
यजुर्वेद के कर्मकाण्डों को सम्पन्न कराने वाले पुरोहित को ‘अध्वर्यु’ कहा जाता है।
यजुर्वेद की दो शाखाएं है – शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद
शुक्ल यजुर्वेद का केवल एक ब्राह्मण ग्रंथ ‘शतपथ ब्राह्मण’ है। यह सबसे प्राचीन तथा सबसे बड़ा ब्राह्मण माना जाता है इसके लेखक महर्षि याज्ञवलक्य है।
कृष्ण यजुर्वेद के ब्राह्मण का नाम तैत्तिरीय ब्राह्मण है।
आरण्यक – यजुर्वेद के आरण्यक वृहदारण्यक, तैत्तिरीय, शतपथ
वृहदारण्यक उपनिषद् में ‘याज्ञवलक्य-गार्गी’ का प्रसिद्ध संवाद है।
तैत्तिरीय उपनिषद् में ‘अधिक अन्न उपजाओं’ एवं कठोपनिषद् में ‘यम और नचिकेता’ के बीच प्रसिद्ध संवाद का वर्णन है।
इस उपनिषद् में आत्मा को पुरुष कहा गया है।
गीता में जिस निष्काम कर्म का वर्णन किया गया है उसका सर्वप्रथम उल्लेख इसी ग्रंथ में मिलता है।
4. अथर्ववेद
अथर्वा ऋषि के नाम पर इस वेद का नाम अथर्ववेद पड़ा।
किसी यज्ञ में बाधा आने पर उसका निराकरण वेद होने के कारण इसे ‘ब्रह्मवेद’ या ‘श्रेष्ठवेद’ कहा गया।
अथर्ववेद के मंत्रों का उच्चारण करने वाले पुरोहित को ‘ब्रह्मा’ कहा जाता है।
अथर्ववेद में 20 अध्याय, 731 सूक्त और 6000 मंत्र है।
इस वेद में वशीकरण, जादू-टोना, मरण, भूत-प्रेतों आदि के मंत्र तथा नाना प्रकार की औषधियों का वर्णन है।
आयुर्वेद, चिकित्सा, औषधियों आदि के वर्णन होने के कारण इसे भैषज्य वेद भी कहा जाता है।
इसमें ‘वास्तुशास्त्र’ का बहुमूल्य ज्ञान भी उपलब्ध है।
अर्थवेद की दो शाखाएँ है – शौनक और पिप्पलाद्
इसका एकमात्र ब्राह्मण ‘गोपथ ब्राह्मण’ है।
अथर्ववेद का कोई आरण्यक नहीं है।
उपनिषद् – मुण्डकोपनिषद्, माण्डूक्योपनिषद्, प्रश्नोपरिषद्।
‘सत्यमेव जयते’ वाक्य मुण्डोपनिषद् से लिया गया है।
मुण्डोपनिषद् अथर्ववेद का उपनिषद है।
‘यज्ञों की टूटी-फूटी नौकाओं के समान’ मुण्डोपनिषद् में कहा गया है।
माण्डूक्योपनिषद् सभी उपनिषदों में छोटा है।
अथर्व वेद में सभा और समिति को प्रजापत्य की दो पुत्रियाँ कहा गया है।
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