सिंधु घाटी की सभ्यता
- K.K. Lohani
- Jun 29, 2020
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Updated: Apr 6, 2021

सिंधु घाटी की सभ्यता (Indus Valley Civilization)
सैंधव सभ्यता के लिए साधारणतः तीन नामों का प्रयोग होता है — सिंधु सभ्यता, सिंधु घाटी की सभ्यता, और हड़प्पा सभ्यता।
इसका नाम हड़प्पा संस्कृति पड़ा क्योंकि इसकी जानकारी सबसे पहले 1921 ई॰ में पाकिस्तान में अवस्थित हड़प्पा नामक आधुनिक स्थल से हुई।
भारत में प्रागैतिहासिक स्थलों को खोजने का कार्य भारतीय पुरातत्व एवं सर्वेक्षण विभाग करता है।
भारतीय पुरातत्व विभाग के जन्मदाता अलेक्जेंडर कनिंघम को माना जाता है।
भारतीय पुरातत्व विभाग की नींव वॉयसराय लॉर्ड कर्जन के काल में पड़ी।
1921 ई॰ में भारतीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक जॉन मार्शल थे तब मार्शल के निर्देशन में रायबहादुर दयाराम साहनी ने 1921 ई में हड़प्पा की एवं राखालदास बनर्जी ने 1922 ई॰ में मोहनजोदड़ों की खुदाई करवायी।
हड़प्पा पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के मांटगोमरी जिले (वर्तमान शाहीवाल) में स्थित है, जबकि मोहनजोदड़ों सिंध के लरकाना जिले में स्थित है।

हड़प्पा रावी नदी के बाएं तट पर जबकि मोहनजोदड़ों सिंधु नदी के दाहिने तट पर स्थित है।
पिग्गट महोदय ने हड़प्पा और मोहनजोदड़ों को ‘एक विस्तृत साम्राज्य की जुड़वां राजधानियाँ ‘ कहा है।
जॉन मार्शल ने सर्वप्रथम हड़प्पा सभ्यता को सिंधु सभ्यता का नाम दिया।
हड़प्पा सभ्यता के प्रारंभिक स्थल सिन्धु नदी के आस—पास अधिक केन्द्रित थे इस कारण इसे सिंधु सभ्यता भी कहा गया।
सिंधु सभ्यता आद्य-ऐतिहासिक काल से सम्बद्ध है क्योंकि इसकी चित्रात्मक लिपि अभी तक नहीं पढ़ी जा सकी है।
सिन्धुवासियों ने पहली बार ताँबे में टिन मिलाकर कांसा तैयार किया। अतः इसे कांस्य युगीन सभ्यता भी कहा जाता है।
ह्वीलर ने हड़प्पा सभ्यता को सुमेरियन सभ्यता का उपनिवेश कहा है।
हड़प्पा सभ्यता का पश्चिमी पुरास्थल सुत्कागेनडोर (ब्लूचिस्तान), पूर्वी पुरास्थल आलमगीरपुर (उ॰प॰) उत्तरी पुरास्थल मांडा (जम्मू—कश्मीर, अखनूर जिला) एवं दक्षिणी पुरास्थल दैमाबाद (महाराष्ट्र—अहमदनगर जिला) है।
इस सभ्यता की मुख्य प्रजातियां — अल्पाइन, मंगोलियन, भूमध्यसागरीय (सर्वाधिक) और प्रोटोऑस्ट्रेलायड थे।
रेडियो कार्बन—14 (C-14) जैसी नवीन विश्लेषण पद्धति के द्वारा हड़प्पा सभ्यता की तिथि 2500 ई॰पू॰ से 1700 ई॰पू॰ मानी गई है।

यह सभ्यता मेसोपोटामिया तथा मिस्र की सभ्यताओं की समकालीन थी।
हड़प्पा सभ्यता का विस्तार त्रिभुजाकार था एवं 12,99,600 वर्ग किमी॰ क्षेत्रफल में फैला था। लगभग 13 लाख वर्ग किमी॰।
हड़प्पा सभ्यता एक नगरीय सभ्यता थी। सैंधव सभ्यता से प्राप्त परिपक्व अवस्था वाले स्थलों में केवल 6 को ही बड़े नगर की संज्ञा दी गई है, ये है — मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, लोथल, चन्हुदड़ों, कालीबंगा एवं बनवाली।
अब तक इस सभ्यता के अवशेष पाकिस्तान में पंजाब, सिंध, ब्लूचिस्तान और भारत मे पंजाब, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जम्मू—कश्मीर, पश्चिमी महाराष्ट्र के भागों में पाए जा चुके है।
मोहनजोदड़ों का अर्थ है — मुर्दो का टीला
मोहनजोदड़ों से एक अन्नागार एक विशाल स्नानाकार, सभा भवन पुरोहित आवास, कुम्भकारों के भट्ठों के अवशेष, सूती कपड़ा, हाथी का कपाल खण्ड एवं कांसे की नृत्यरत नारी की मूर्ति के अवशेष मिले है।
स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात हड़प्पा संस्कृति के सर्वाधिक स्थल गुजरात में खोजे गए है।
लोथल एवं सुतकोतदा — सिंधु सभ्यता का बंदरगाह था।
मोहनजोदड़ों से प्राप्त स्नानागार संभवतः सैंधव सभ्यता की सबसे बड़ी ईमारत है।
जुते हुए खेत और नक्काशीदार ईंटों के प्रयोग का साक्ष्य कालीबंगन से प्राप्त हुआ है।
अग्निकुण्ड लोथल एवं कालीबंगन से प्राप्त हुए है।
मनके बनाने के कारखाने लोथल एवं चन्हुदड़ों में मिले है।
मोहनजोदड़ों से नर्तकी की एक कांस्य मूर्ति मिली है।

हड़प्पा सभ्यता की लिपि भावचित्रात्मक है। यह लिपि दायीं ओर से बायीं ओर लिखी जाती थी। जब अभिलेख एक से अधिक पंक्तियों का होता था तो पहली पंक्ति दायीं से बायीं और दूसरी बायीं से दायीं ओर लिखी जाती थी।
सिंधु सभ्यता की लिपि में सबसे अधिक प्रचलित चिह्न मछली का है।
आग में पकी हुई मिट्टी के खिलौने या सामानों को टेराकोटा कहा जाता है।
पशुओं में कुबड़ वाला सांड़ सिंधु सभ्यता के लोगों में विशेष पूज्जनीय था।
कालीबंगा में प्राक् सैंधव संस्कृति की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि एक जुते हुए खेत का साक्ष्य मिलना है। यहीं से यज्ञ और हवनकुंड के अवशेष भी प्राप्त हुए है।
हड़प्पा सभ्यता का नगर नियोजन आयतकार आकृति में किया गया था।
घरों के दरवाजे और खिड़कियाँ सड़क की ओर न खुलकर पिछवाड़े की ओर खुलते थे। केवल लोथल नगर के घरों के दरवाजें मुख्य सड़क की ओर खुलते थे।
लोथल एवं रंगपुर से चावल एवं बाजरे के उत्पादन के साक्ष्य मिले है।
लोथल ही एकमात्र स्थल है जहाँ पूरा शहर एक ही दुर्ग से घिरा था।
बनावली में मिट्टी का बना हुआ एक हल का खिलौना मिला है।
सिंधु सभ्यता में मुख्य फसल गेहूँ और जौ था।
सैंधव वासी मिठास के लिए शहद का प्रयोग करते थे।
सुरकोतदा, कालीबंगन एवं लोथल से सैंधवकालीन घोड़े के अस्थिपंजर मिले है।
तौल की इकाई संभवतः 16 के अनुपात में थे।
मेसोपोटामियां के अभिलेखें में वर्णित ‘मेलूहा’ शब्द का अभिप्राय सिंधु सभ्यता से ही है।
सिंधु सभ्यता के लोग धरती को उर्वरता की देवी मानकर उसकी पूजा किया करते थे।
स्वास्तिक चिह्न संभवतः हड़प्पा सभ्यता की देन है। इस चिह्न से सूर्योपासना का अनुमान लगाया जाता है। सिंधु घाटी के नगरों से किसी भी मंदिर के अवशेष नहीं मिले है।
सिन्धु सभ्यता में मातृदेवी की उपासना सर्वाधिक प्रचलित थी।
स्त्री मृण्मूर्तियाँ (मिट्टी की मूर्तियाँ) अधिक मिलने से ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि सैंधव समाज मातृसजात्मक था।
सिन्धु घाटी के लोग तलवार से परिचित नहीं थे।
कालीबंगन का अर्थ होता है — काली चुड़ियाँ
पर्दा—प्रथा एवं वेश्यावृत्ति सैंधव सभ्यता में प्रचलित थी।
हड़प्पा में शवों को दफनाने जबकि मोहनजोदड़ों में जलाने की प्रथा विद्यमान थी। लोथल एवं कालीबंगा में युग्म समाधियाँ मिली है।
सैंधव सभ्यता के विनाश का संभवतः सबसे प्रभावी कारण बाढ़ थी।
गार्डन चाइल्ड एवं ह्वीलर के अनुसार हड़प्पा सभ्यता का विनाश विदेशी (आर्य) आक्रमण से हुआ।
हड़प्पा सभ्यता में चाक निर्मित मृदभाण्ड बनाये जाते थे जो गुलाबी रंग के होते थे और इन पर काले रंग से ज्यामितीय डिजाइन बनाये जाते थे।
इस सभ्यता में प्रकृति पूजा, शिव पूजा एवं कुबड़ वाले सांड की पूजा का विशेष प्रचलन था।
हड़प्पावासी ऊनी एवं सूती वस्त्रों दोनों का उपयोग करते थे।
हड़प्पा सभ्यता की अधिकांश मोहरे ‘सेलखड़ी’ की बनी होती थी।
धोलावीरा एकमात्र स्थान था जहाँ से उन्नत एवं विशिष्ट जल प्रबंधन तकनीक (नहर—जलाशय प्रणाली) का प्रमाण मिलता है।
धोलावीरा नगर तीन खण्डों में विभाजित है। जहाँ से स्टेडियम एवं जलाशय के अवशेष मिले है।
मिस्र की सभ्यता का विकास नील नदी की द्रोणी में हुआ।
मिस्र को नील नदी का उपहार कहा जाता है।
सुमेरिया सभ्यता के लोग प्राचीन विश्व के प्रथम लिपि—आविष्कर्ता थे।
सर्वप्रथम सैंधव निवासियों ने कपास की खेती प्रारंभ किया था।
भारत में कपास की खेती का प्रारंभ 3000 ई॰पू॰ में किया गया, जबकि मिस्र में इसकी खेती 2500 ई॰पू॰ के लगभग शुरू की गई।
लोथल तथ बालाकोट सीप उद्योग के लिए प्रसिद्ध था।
लोथल एवं मोहनजोदड़ों से हाथी दांत के बने तराजू के पलड़े मिले है।
धातु मूर्तियां लुप्त मोम या मधूचिछष्ट विधि (Lost Wax) से बनाई जाती थी।
सिंधु सभ्यता की मुहरों पर सर्वाधिक अंकन एक श्रृंगी बैलों का है उसके बाद कूबड़ वाले बैल का है।
पशुपति शिव का प्रमाण मोहनजोदड़ों से प्राप्त एक मुहर है जिस पर योगी की आकृति बनी है।
लोथल तथा कालीबंगन के पुरास्थलों से अग्निकुंड अथवा यज्ञ वेदियों के साक्ष्य मिलते हैं।
आंशिक समाधिकरण के उदाहरण बहावलपुर से मिले है।
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