ताम्रपाषाणिक संस्कृति | Chalcolithic Culture
- K.K. Lohani
- May 31, 2020
- 4 min read
Updated: Mar 14, 2021

ताम्रपाषाणिक संस्कृति (Chalcolithic Culture)
ताम्रपाषाणिक संस्कृति से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य
नवपाषाण काल को दो चरणों गैरमृदभाण्ड और मृदभाण्ड काल में विभाजित किया जाता है। मृदभाण्ड नवपाषाण काल के अन्त में धातु का प्रयोग आरंभ हुआ।
जिस काल में मनुष्य ने पत्थर और ताँबे के औजारों का साथ—साथ प्रयोग किया, उस काल को ताम्र-पाषाणिक काल या ताम्रपाषाणिक संस्कृति अथवा कैल्कोलिथिक कल्चर (Chalcolithic Culture) कहा जाता है।
तिथि क्रम के अनुसार भारत में ताम्र—पाषाण बस्तियों की अनेक शाखाएँ है। कुछ तो प्राक् हड़प्पीय है, कुछ हड़प्पा संस्कृति की समकालिन है, कुछ हड़प्पोत्तर काल की है। प्राक् हड़प्पा कालीन संस्कृति के अंतर्गत राजस्थान के कालीबंगा एवं हरियाणा के बनवाली स्पष्टतः ताम्र-पाषाणिक अवस्था के है।
सर्वप्रथम चित्रित भांडो के अवशेष ताम्र—पाषाणिक काल में ही मिलते है। इसी काल के लोगों ने सर्वप्रथम भारतीय प्रायद्वीप में बड़े—बड़ें गाँवों की स्थापना की।
ताम्रपाषाण युग के लोग लिखने की कला नहीं जानते थे और न ही वे नगरों में रहते थे।
जलोढ़ मिट्टी वाले मैदानों और घने जंगल वाले इलाकों को छोड़कर प्रायः समुचे देश में ताम्र पाषाणीय संस्कृतियाँ प्राप्त हुई है।
प्रागैतिहासिक मानव द्वारा सर्वप्रथम प्रयोग में लाई जानेवाली धातु ‘ताँबा’ थी।
ऐसा माना जाता है कि ताँबे का सर्वप्रथम प्रयोग करीब 5000 ई॰पू॰ में किया गया।
ताँबे के प्रयोग और उसके लाभों का विवेचन बी॰जी॰ चाइल्ड ने अपनी पुस्तक ‘What Happened in History’ में किया है।
मालवा से मिले चरखे और तकलियाँ तथा महाराष्ट्र से मिले सूत एवं रेशम के धागे तथा कायथा से मिले मनके के हार के आधार पर कहा जा सकता है कि ताम्र—पाषाण काल में लोग कताई-बुनाई एवं सोनारी व्यवसाय से परिचित थे।
इस समय शवों के संस्कार में घर के भीतर ही शवों को दफना दिया जाता था। दक्षिण भारत में प्राप्त शवों के शीश पूर्व और पैर पश्चिम की ओर एवं महाराष्ट्र में प्राप्त शवों के शिश उत्तर की ओर एवं पैर दक्षिण की ओर मिले है।
पश्चिम भारत में लगभग सम्पूर्ण शवाधान एवं पूर्वी भारत में आंशिक शवाधान का प्रचलन था।
1200 ई॰पू॰ के लगभग ताम्र—पाषाणिक संस्कृति का लोप हो गया। केवल जोर्वे संस्कृति ही 900 ई॰पू॰ तक बची रह सकी।
बिहार में ताम्रपाषाण स्थलों में सेनुवार, सोनपुर और ताराडीह एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में खैराडीह और नरहन भी प्रमुख है।
भारत में ताम्रपाषाण काल की बस्तियाँ दक्षिणी—पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिण—पूर्वी भारत में पाई गई है।
दक्षिण—पूर्व राजस्थान
दक्षिण—पूर्वी राजस्थान में ‘आहार’ और दूसरा ‘गिलुंद’ प्रमुख है। ये पुरास्थल बनास घाटी में स्थित है। बनास घाटी में स्थित होने के कारण इसे बनास संस्कृति भी कहते हैं। इस संस्कृति की विशेषताओं को दर्शाने वाले स्थल आहाड़ के नाम पर इसे आहार संस्कृति भी कहा जाता है।
बनासघाटी में स्थित आहार में सपाट कुल्हाडि़याँ, चुडि़याँ और कई तरह की चादरें प्राप्त हुई है। ये सब ताँबे से निर्मित उपकरण थे।
अहाड़ का प्राचीन नाम तांबवती अर्थात् ताँबा वाली जगह है। यहाँ के मकान पत्थर की चहारदीवारी से घिरे मिले है।
यहाँ से काले और लाल मृद्भाण्ड प्राप्त हुये है, जिन्हें सफेद रैखिक चित्रों से सजाया गया है।
गिलुंड, जहाँ पर एक प्रस्तर फलक उघोग के अवशेष मिले है अहार संस्कृति का केन्द्र बिन्दु माना जाता है। गिलुंद में ताँबे के टुकड़े मिलते है।
अहार संस्कृति की समय सीमा 2800-1500 ई॰ के मध्य मानी जाती है।
गणेश्वर नामक स्थल विशेष रूप से दर्शनीय है। यह राजस्थान में खेत्री ताम्र-पट्टी के सीकर-झुँझनू क्षेत्र के ताँबे की समृद्ध खानों के निकट पड़ता है।
गणेश्वर हड़प्पा को ताँबे की वस्तुओं की आपूर्ति करता था।
पश्चिमी मध्य प्रदेश
पश्चिम मध्य प्रदेश में मालवा, कायथा, एरण और नवदाटोली प्रमुख स्थल है।
यहाँ ताम्रपाषाणिक संस्कृति मूलतः नर्मदा घाटी में विकसित हुई।
कयथा संस्कृति हड़प्पा संस्कृति की कनिष्ठ समकालीन मानी जाती है। यहाँ के कुछ मृद्भाण्डों पर प्राक् हड़प्पीय प्रभाव तथा कुछ पर हड़प्पाई प्रभाव दिखाई पड़ता है।
कायथा के एक घर में ताँबे के 29 कंगन और दो अद्वितीय ढंग की कुल्हाडि़या पाई गई है।
कोटदीजी और कयथा की संस्कृति हड़प्पाकालीन है।
खुदाई में मालवा से प्राप्त होने वाले मृद्भाण्ड ताम्रपाषाण काल की खुदाई से प्राप्त अन्य मृदभाण्डों में सर्वोत्तम माने गये है।
मालवा से मिले चरखे और तकलियाँ इस बात को प्रमाणित करते है कि इस संस्कृति के लोग कताई और बुनाई में दक्ष थे।
नवदाटोली का उत्खन्न दक्खन कालेज पूना के प्रो॰ एच॰ डी॰ सांकलिया ने किया है और यह स्थल इस महाद्वीप का सबसे विस्तृत उत्खनित ताम्रपाषाण युगीन ग्राम स्थल है।
महाराष्ट्र
सबसे विस्तृत उत्खनन पश्चिमी महाराष्ट्र में हुए है जिसके प्रमुख पुरास्थल अहमदनगर जिले में जोर्वे, नेवास और दायमाबाद, पुणे जिले में चंदोली, सोनगाँव, इनामगाँव, नासिक और अहमदनगर गोदावरी नदी की शाखा नदी प्रवरा के बाएँ तट पर स्थित है। ये सभी पुरास्थल जोर्वे संस्कृति के है।
जोर्वे संस्कृति का समय 1500-900 ई॰पू॰ माना जाता है।
जोर्वे संस्कृति ठेठ महाराष्ट्र की संस्कृति है।
इनामगाँव जैसे स्थलों पर यह संभवतः ई॰पू॰ 700 तक विध्यमान रही।
वैसे जोर्वे सभ्यता ग्रामीण थी पर कुछ भागों जैसे दायमाबाद एवं इनामगाँव में नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हो गयी थी। घर वर्गाकार, आयताकर या वृत्ताकार होते थे। दीवारें मिट्टी और गारा मिलाकर बनाई जाती थी। और उनमें लकड़ी के डंडों की टेक दी जाती थी।। छत की सामग्री संभवतः फूस की होती थी, जिसे गारे से ढ़क दिया जाता था।
नेवास में घर का सामान्य आकार 3×7 फुट था। सबसे बड़े घर की माप 45×20 फुट थी।
इस काल में लोग गेहूँ, धान और दाल की खेती करते थे तथा पशुओं में गाय, भैंस, बकरी, सुअर और ऊँट पालते थे।
अब तक ज्ञात 200 जार्वे स्थलों में गोदावरी के तट पर स्थित दैमाबाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण और बड़ा स्थल है। यह लगभग 20 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है जिसमें 4000 लोग रह सकते थे।
नेवासा (जोर्वे संस्कृति स्थल) से पटसन का साक्ष्य प्राप्त हुआ है।
इनामगाँव में मातृ—देवी की प्रतिमा मिली है, जो पश्चिमी एशिया में पाई जाने वाली ऐसी प्रतिमा से मिलती है।
मातृदेवी की एक आकृति सांड की आकृति के साथ जुड़ी मिली है। यह कच्ची मिट्टी की है।
यहाँ से बहुत सारे कलश शवाधान प्राप्त हुए है ये कलश घरों के फर्श के नीचे उत्तर—दक्षिण दिशा में गाड़ते थे।
यहाँ से बाद की अवस्था में (1300 ई॰पू॰ से 1000 ई॰ पू॰) पाँच कमरों वाला एक मकान मिला है।
इनामगाँव ताम्रपाषाण काल की एक बड़ी बस्ती थी। इनमें सौ से अधिक घर और कमरे पाये गये है। यह बस्ती किलाबंद है तथा खाई से घिरी हुई है।
इनामगाँव में शिल्पी पश्चिमी छोर पर रहते थे जबकि सरदार प्रायः केन्द्र स्थल पर रहता था।
दायमाबाद की ख्याति अधिक संख्या में कांसे की वस्तुओं की उपलब्धि के लिए है।
सोने के आभूषण केवल जोर्वे संस्कृति में ही पाये गये है।
दक्षिण भारत में कृषक की अपेक्षा चरवाहा संस्कृति का अधिक प्रमाण मिला है।

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