प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत
- K.K. Lohani
- May 13, 2020
- 7 min read
Updated: Mar 25, 2021

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत (Source of Ancient Indian History)
इतिहास क्या है?
इतिहास वह सामाजिक विज्ञान है जिसमें अतीत की घटनाओं का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है। यहाँ अतीत से हमारा तात्पर्य उस राष्ट्र की संस्कृति और सभ्यता से है। प्रत्येक देश अथवा राष्ट्र की अस्मिता की पहचान उसकी संस्कृति और सभ्यता से की जाती है।
संस्कृति के अंतर्गत मानव के समस्त क्रिया—कलाप आते है, जबकि सभ्यता के अंतर्गत उसके भौतिक पहलुओं पर विशेष जोर दिया जाता है।
भारत का ऐतिहासिक परिचय
प्राचीन काल में भारत के विशाल उपमहाद्वीप को भारतवर्ष अर्थात् भरतों की भूमि के नाम से जाना जाता था। उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक फैला भारतीय महाद्वीप हिन्दुओं में भारतवर्ष के नाम से ज्ञात है, जिसे भारत की भूमि भी कहा जाता है।
देश का नामकरण ऋग्वैदिक काल के प्रमुख जन ‘भरत’ के नाम पर किया गया। आर्यो का निवास स्थान होने के कारण इसका नामकरण ‘आयावर्त’ के रूप में हुआ।
भारत देश ‘जम्मू द्वीप’ का दक्षिणी भाग था जहाँ पर ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में महान मौर्य वंश का शासन था।
यूनानियों ने भारत वर्ष के लिए ‘इंडिया’ शब्द का प्रयोग किया जबकि मध्यकालीन अरबी लेखकों ने इस देश को ‘हिन्द’ अथवा ‘हिन्दुस्तान’ नाम से सम्बोधित किया।
‘हिन्दू’ शब्द की उत्पत्ति महान सिंधु नदी से हुई है।
पारिसयों के पवित्र ग्रंथ ‘जिन्द अवेस्त’ में सरस्वती की सात नदियों के क्षेत्र का उल्लेख करते हुए ‘सप्तसैन्धव’ शब्द का प्रयोग किया गया।
प्रसिद्ध यूनानी इतिहासकार ‘हेरोडोटस’ ने ‘इण्डोस’ शब्द का प्रयोग परिसियन साम्राज्य की ‘क्षत्रपी’ के लिए किया।
इत्सिंग ने भारत के लिए आर्य देश को ब्रह्मराष्ट्र जैसे शब्दों का प्रयोग किया। पतंजलि के समय में (150 ई॰पू॰) ‘आयावर्त’ शब्द का उल्लेख मिलता है।
शंकराचार्य ने देश की एकता को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से देश के चार छोरों पर चार मठ स्थापित किए थे। उत्तर में ‘ज्योतिर्मठ’, पश्चिम में द्वारिका में ‘शारदामठ’, पूर्व में पुरी में ‘गोवर्धनमठ’ और मैसूर में ‘श्रृंगेरीमठ’।
भारतीय इतिहास को अध्ययन की सुविधा के लिए तीन भागों में बाँटा गया है। 1. प्राचीन भारत 2. मध्यकालीन भारत 3. आधुनिक भारत।
प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत
प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी मुख्यतः दो स्रोतों से प्राप्त होती है —
साहित्यिक स्रोत : साहित्यिक स्रोतो में वैदिक संस्कृत, पाली, प्राकृत और अन्य साहित्य को तथा इसके अलावा विदेशियों द्वारा लिखे गये वृत्तान्तों को शामिल किया जाता है।
पुरात्विक स्रोत : पुरातत्व के अंतर्गत पुरालेखों, सिक्कों, स्थापत्य, अवशेषों, पुरातत्वीय अन्वेषणों एवं उत्खन्नों को शामिल किया जाता है।
साहित्यिक स्रोत
पुराणों और महाकाव्यों में इतिहास के प्रारंभिक तथ्य सुरक्षित है। हमें राजाओं की वंशावलियों और उपलब्धियों की जानकारी साहित्यिक स्रोतों से मिलती है। लेकिन कालक्रम के अनुसार उनका विन्यास करना कठिन है।
साहित्य साक्ष्य के अंतर्गत साहित्यिक ग्रंथों से प्राप्त सामग्रियों का अध्ययन किया जाता है।
वैदिक साहित्य में मुख्यतः चार वेद है — (i) ऋग्वेद (ii) सामवेद (iii) यजुर्वेद (iv) अथर्ववेद
इन चारों वेदों को संहिता कहा जाता है।
इनकी भाषा को वैदिक भाषा कहा जाता है।
भारत का सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ वेद है।
वेदों के संकलनकर्ता महर्षि कृष्ण द्वैपायन (वेदव्यास) है।
वेदों से ही हमें आर्यो के विषय में जानकारी मिलती है।
चारों वेदों में सर्वाधिक प्राचीन ऋग्वेद में 10 मण्डल, 8 अष्टक, 10600 मंत्र एवं 1028 सूक्त है।
वेदों को ठीक ढंग से समझने के लिए वेदांगो की रचना की गयी।
वेदांगों की संख्या 6 है — (i) शिक्षा (स्वर विज्ञान) (ii) कल्प (कर्मकाण्ड) (iii) व्याकरण (iv) निरूक्त (व्युत्पत्ति विज्ञान) (v) छन्द (vi) ज्योतिष (खगोल विज्ञान)
संस्कृत के महान वैयाकरण पाणिनि के अष्टध्यायी में कुल आठ अध्याय है।
वेदों के अलावा ब्राह्मणों, आरण्यकों और उपनिषदों को भी वैदिक साहित्य में शामिल किया जाता है तथा इन्हें उत्तर वैदिक साहित्य कहा जाता है।
ब्राह्मण ग्रंथों में वैदिक कर्मकाण्ड का विस्तार पूर्वक निरूपण किया गया है।
आरण्य ग्रंथों और उपनिषदों में विभिन्न आध्यात्मिक और दार्शनिक समस्याओं के बारे में चर्चायें की जाती है।
पुराणों की संख्या 18 है। जिसमें मुख्यतः ऐतिहासिक विवरण है।
जैन व बौद्ध साहित्य प्राकृत और पालि भाषाओं में लिखे गए है।
प्राकृत संस्कृत भाषा का एक रूप था।
पालि को प्राकृत भाषा का एक रूप समझा जा सकता है। जिसका चलन मगध में था।
जातक कथाओं में बुद्ध के पूर्व जन्मों के बारे में चर्चा मिलती है।
धर्मसूत्र स्मृतियों में सर्व साधारण और शासकों के लिए नियम और विनियम निर्धारित है।
धर्मसूत्र स्मृतियों का संकलन 600 ई॰पू॰ से 200 ई॰पू॰ के बीच किया गया।
स्मृतियों में मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति सर्वाधिक प्राचीन और प्रसिद्ध है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र जो राजतंत्र से सम्बंधित ग्रंथ है, मौर्यकाल में लिखा गया था।
विशाखदत्त द्वारा लिखित पुस्तक ‘मुद्राराक्षस’ नाटक है जिसमें समाज और संस्कृति की झलक दिखाई पड़ती है।
‘मालविकाग्निमित्रम नाटक’ कालिदास द्वारा रचित पुस्तक है जो पुष्यमित्र के शासनकाल की कुछ घटनाओं पर आधारित है।
‘हर्षचरित’ बाणभट्ट रचित पुस्तक है जो ऐतिहासिक तत्यों पर आधारित है।
वाक्पति ने कन्नौज के राजा यशोवर्मन के कारनामों पर आधारित ‘गौड़वहो’ नामक पुस्तक लिखी।
‘पृथ्वीराजरासो’ चंदवरदाई की रचना है।
कल्हण द्वारा लिखित राजतरंगिणी नामक ऐतिहासिक ग्रंथ इतिहास लेखन का सर्वोत्तम उदाहरण है।
संगम साहित्य से हमें दक्षिण के तीन राज्यों चोल, चेर और पाण्ड्य की संस्कृति की जानकारी मिलती है।
संगम साहित्य में लगभग 500 ई॰पू॰ से 500 ई॰ तक घटनाओं का वितरण प्राप्त होता है।
विदेशी विवरण
यूनानी—रोमन लेखक
यूनान के प्राचीनतम लेखकों में टेसियस तथा हेरोडोट्स के नाम प्रसिद्ध है।
टेसियस यूनान का राजवैध था तथा भारत के विषय में इसकी जानकारी यूनानी अधिकारियों से प्राप्त की थी तथा इसका विवरण आश्चर्यजनक कहानियों से परिपूर्ण होने के कारण अविश्वसनीय है।
हेरोडोट्स : इसे इतिहासक का पिता कहा जाता है। इसने अपनी पुस्तक हिस्टोरिका में 5वीं शताब्दी ई॰पू के भारत—फारस (ईरान) के संबंध का वर्णन किया है।
सिकन्दर के साथ आने वाले लेखकों में नियार्कस आर्नेसिक्रटस तथा अरिस्तोबुल्स के विवरण अपेक्षाकृत अधिक प्रमाणिक और विश्वसनीय है।
मेगास्थनीज : यह सेल्युकस निकेटर का राजदूत था, जो चन्द्रगुप्त मौर्य के राज दरबार में आया था। इसने अपनी पुस्तक इंडिका में मौर्य युगीन समाज एवं संस्कृति के विषय में लिखा है।
डायमेकस : यह सीरियस नरेश आन्तियोकस का राजदूत था जो बिन्दुसार के राजदरबार में आया था। इसका विवरण भी मौर्य युग से संबंधित है।
डायोनिसियस : यह मिस्र नरेश टॉलमी फिलेडेल्फस का राजदूत था, जो अशोक के राजदरबार में आया था।
टॉलमी : इसने दूसरी शताब्दी में ‘भारत का भूगोल’ नामक पुस्तक लिखी।
प्लिनी : इसने प्रथम शताब्दी में ‘नेचुरल हिस्ट्री’ नामक पुस्तक लिखी। इसमें भारतीय पशुओं पेड़—पौधों, खनिज—पदार्थो आदि के बारे में विवरण लिखा है।
चीनी लेखक
ये बौद्ध धर्मों का अध्ययन या बौद्ध तीर्थों का दर्शन करने आये थे इसलिए इनके विवरणों का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर ज्यादा है।
चीनी यात्रियों में मुख्यतः तीन यात्री प्रसिद्ध है।
फाहियान : यह चीनी यात्री गुप्त नरेश चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार में 375 से 415 ई॰ के बीच आया था। इसने अपने विवरण में मध्य प्रदेश के समाज एवं संस्कृति के बारे में वर्णन किया है। तथा यहाँ की जनता को सुखी एवं समृद्ध बताया है। यह 14 वर्षों तक भारत में रहा।
संयुगन : यह 518 ई॰ में भारत आया और अपने 3 वर्ष की यात्रा में बौद्ध ग्रंर्थों की प्रतियाँ एकत्रित की।
ह्वेनसांग : चीनी यात्रियों में ‘ह्वेनसांग अथवा युवान च्यांग’ का नाम उल्लेखनीय है। यह हर्षवर्द्धन के शासन काल में 629 ई॰ में भारत आया। सर्वप्रथम यह भारतीय राज्य ‘कपिशा’ पहुँचा। वह यहाँ लगभग 16 वर्षों तक रहा। वह बिहार में नालंदा जिला स्थित नालंदा विश्वविघालय में अध्ययन करने तथा भारत में बौद्ध ग्रंर्थों को एकत्रित कर ले जाने के लिए आया था। इसका यात्रा वृत्तांत ‘सि-यू-की’ नाम से प्रसिद्ध है। जिसमें 138 देशों का अध्यन प्राप्त होता है।
अरबी लेखक
अलबरूनी : यह महमूद गजनवी के साथ भारत आया था। अरबी भाषा में लिखी गई उसकी कृति ट्टकिताब—उल—हिन्द या तहकीक—ए—हिन्द’ (भारत की खोज) आज भी इतिहासकारों के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत है। इनमें राजपूत—कालीन समाज, धर्म, रीति—रिवाज, राजनीति आदि पर सुन्दर प्रकाश ाला गया है। यह रचना 80 अध्यायों में विभाति है।
इब्न बतूता : इसके अपनी अरबी भाषा में लिखी यात्रा वृत्तांत ‘रिहला’ में 14वीं शताबदी में भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के विषय में बहुत ही प्रचुर तथा सबसे रोचक जानकारिया दी है। 1333 ई॰ में दिल्ली पहुँचने पर इसकी विद्वता से प्रभावित होकर सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक ने उसे दिल्ली का काजी या न्यायाधीश नियुक्त किया।
पुरातात्विक स्रोत
पुरातत्व वह विज्ञान है जिसके माध्यम से पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई सामग्रियों की खुदायी कर प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
पुरातत्व के अंतर्गत तीन प्रकार के साक्ष्य आते है — (i) अभिलेखिय साक्ष्य (ii) मुद्रा साक्ष्य (iii) स्मारक साक्ष्य।
अभिलेख साक्ष्य
इतिहास लेखन का सबसे विश्वसनीय श्रोत उत्कीर्ण लेख को माना जाता है।
उत्कीर्ण लेखों के अध्ययन को एपीग्राफी (अभिलेखशास्त्र) कहा जाता है।
अभिलेख पाषाण शिलाओं, स्तंभों, दीवारों, मुद्राओं एवं ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण किए जाते थे।
लिखने की सबसे प्राचीन प्रणाली हड़प्पा के मुद्राओं में पायी जाती है जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।
अशोक के उत्कीर्ण लेखों के लेखन प्रणाली को सबसे प्राचीन माना जाता है।
अशोक के अभिलेख चार लिपियों में है — ब्राह्मी, खरोष्ठी, आरमेइक और यूनानी।
लिपियों के विकास के अध्ययन को ‘पुरालिपि विघा’ कहा जाता है।
शिला लेखों से हमें ज्ञात होता है कि ब्राह्मणों को जो कर मुक्ति भूमि प्रदान की जाती थी उन्हें ‘अग्रहार’ कहा जाता था।
सबसे प्राचीन अभिलेख मध्य एशिया का बोगजजोई से प्राप्त अभिलेख है। जिसमें हिती नरेश सल्लिल्युमा तथा मितन्नी नरेश मतिवाजा के बीच संधि का उल्लेख है।
बोगजकोई अभिलेख (एशिया माइनर) लगभग 1400 ई॰पू॰ का अभिलेख है। जिसमें वैदिक देवता इन्द्र, मित्र, वरुण एवं नासत्य (अश्विनी कुमार) के नाम मिलते है।
मध्य भारत में भागवर्त धर्म विकसित होने का प्रमाण यवन राजदूत ‘हीलियोडोरस’ के बेसनगर (विदिशा) गरुड़ स्तम्भ लेख से प्राप्त होता है।
सर्वप्रथम ‘भारतवर्ष’ का जिक्र कलिंग नरेश खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से प्राप्त होता है।
सर्वप्रथम दुर्भिक्ष का जानकारी देनेवाला अभिलेख सौहगौरा अभिलेख है। इस अभिलेख से संकट काल में उपयोग हेतु खाघान्न सुरक्षित रखने का भी उल्लेख है।
सर्वप्रथम भारत पर होनेवाली हूण आक्रमण की जानकारी भीतरी स्तंभ लेख से प्राप्त होती है।
सती प्रथा का पहला लिखित साक्ष्य 510 ई॰ के एरण अभिलेख (शासक भानुगुप्त) से प्राप्त होती है।
सातवाहन राजाओं का पूरा इतिहास उनके अभिलेखों के आधार पर लिखा गया है।
रेशम बुनकर की श्रेणियों की जानकारी ‘मंदसौर’ अभिलेख से प्राप्त होती है।
कश्मीरी नवपाषाणिक पुरास्थल ‘बुर्जहोम’ से गर्तावास (गड्ढ़ा घर) का साक्ष्य मिला है। इनमें उतरने के लिए सीढि़याँ होती थी।
पुरातात्वीय इमारत
पुरातात्वीय इमारत के अंतर्गत प्राचीन इमारतें, मंदिर, मूतियाँ आदि आती है।
उत्तर भारत के मंदिरों की कला की शैली नागर शैली एवं दक्षिण भारत के मंदिरों की कला द्रविड़ शैली कहलाती है।
दक्षिणापथ के मंदिरों के निर्माण में नागर और द्रविड़ दोनों शैलियाँ का प्रभाव पड़ा, अतः यह वेसर शैली कहलाती है।
पंचायतन शब्द मंदिर रचना से संबंधित है। एक हिन्दु मंदिर तब पंचायतन शैली का कहलाता है। जब मुख्य मंदिर चार सहायक मंदिरों से घिरा होता है। पंचायतन मंदिर के उदाहरण है — कंदरिया महादेव (खजुराहों), ब्रह्मेश्वर मंदिर (भुवनेश्वर), लक्ष्मण मंदिर (खजुराहों), लिंगराज मंदिर (भुवनेश्वर), दशावतार मंदिर (देवगढ़, उ॰प्र॰), गोंडेश्वर मंदिर (महाराष्ट्र)।
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