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संवैधानिक इतिहास

  • Writer: K.K. Lohani
    K.K. Lohani
  • Jul 7, 2018
  • 7 min read

Updated: Mar 16, 2021



संवैधानिक इतिहास

प्राचीन भारत में संवैधानिक शासन प्रणाली 

  • प्राचीन भारत में शासन धर्म से बंधे हुए थे कोई भी व्यक्ति धर्म का उल्लंखन नहीं कर सकता था। ऐसे प्रयाप्त प्रमाण सामने आए है जिसमे पता चलता है की प्राचीन भारत के अनेक भागो में गणतंत्र शासन प्रणाली प्रतिनिधि विचारण मंडल और स्थानीय स्वशासी संस्थाए विधमान थी और बैदिक काल (3000-1000 ई.पू. के पास) से ही लोकतान्त्रिक चिंतन तथा वयवहार लोगो के जीवन के विभिन्न पहलुओ में घर कर गए थे।

  • ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में सभा (आम सभा) तथा समिति (वयो वृद्धो की सभा) का उल्लेख मिलता है। एतरेय ब्राह्मण पाणिनि की अष्टध्यायी, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, महाभारत, अशोक स्तंभों पर उत्कीर्ण शिलालेख, उस काल के बौद्ध् तथा जैन ग्रन्थ  और मनुस्मृति – ये सभी इस बात के साक्ष्य है की भारतीय इतिहास के वैदिकोत्तर काल में अनेक सक्रिय गणतंत्र विद्यमान थे। विशेष रूप से महाभारत के बाद विशाल साम्राज्यों के स्थान पर अनेक छोटे-छोटे गणतंत्र राज्य अस्तित्व में आ गए।

  • दसवी शताब्दी में शुक्राचार्य ने ‘नीतिसार’ की रचना की जो संविधान पर लिखी पुस्तक है।

अंग्रेजी शासन 

  • 31 दिसम्बर, 1600 को लन्दन के चंद व्यापारीयो द्वारा बनाई गई ईस्ट इंडिया कम्पनी ने महारानी एलिजाबेथ से शाही चार्टर प्राप्त कर लिया और उस चार्टर द्वारा  कम्पनी को प्रारंभ में 15 वर्ष की अवधी के लिए भारत तथा दक्षिण-पूर्व  एशिया के कुछ क्षेत्रो के साथ व्यापार करने का एकाधिकार दे दिया गया था। (इसमें कम्पनी का संविधान, उसकी शक्तियां और उसके विशेषाधिकार निर्धारित थे।)

  • औरंगजेब की मृत्यु (1707) के बाद मुग़ल साम्राज्य के विघटन की स्थिति का लाभ उठाते हुए कम्पनी एक प्रभावी  शक्ति के रूप में उभर कर सामने आ गई। 1757 में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के खिलाफ प्लासी की लड़ाई में कम्पनी की विजय के साथ इसकी पकड़ और भी मजबूत हो गई और भारत में अंग्रेजी शासन की नीव पड़ी।

रेगुलेटिंग एक्ट – 1773

  • भारत में कम्पनी के प्रशासन पर ब्रिटीश संसदीय नियंत्रण के प्रयासों की शुरुआत थी। कम्पनी के शासनाधीन क्षेत्रो का प्रशासन अब कम्पनी के व्यापारियो का निजी मामला नहीं रहा। 1773 के रेगुलेटिंग एक्ट में भारत में कम्पनी का शासन के लिए पहली बार एक लिखित संविधान प्रस्तुत किया गया।

चार्टर एक्ट – 1833

  • भारत में अंग्रेजी राज के दौरान संविधान निर्माण के प्रथम धुंधले से संकेत 1833 के चार्टर एक्ट में मिलते है।

  • भारत में अंग्रेजी शासनाधीन सभी क्षेत्रो में सम्पूर्ण सिविल तथा सैनिक शासन तथा राजस्व की निगरानी, निर्देशन और नियंत्रण स्पष्ट  रूप से गवर्नर जर्नल ऑफ़ इंडिया इन कौंसिल (सपरिषद भारतीय गवर्नर जर्नल) को सौप दिया गया। इस प्रकार गवर्नर जर्नल की सरकार भारत सरकार और उसकी परिषद् ‘भारत परिषद्’ के रूप में मानी जाती है।

  • विधायी कार्य के परिषद का विस्तार करते हुए पहले के तीन सदस्यों के अतिरिक्त उसमे एक ‘विधि सदस्य’ और जोड़ दिया गया।

  • गवर्नर जर्नल ऑफ़ इंडिया इन कौंसिल को अब कतिपय प्रतिबंधो के अधीन रहते हुए, भारत में अंग्रेजी शासनाधीन सम्पूर्ण क्षेत्रो के लिए कानून बनाने की अन्य शक्तियाँ मिल गई।

चार्टर एक्ट – 1853

  • 1853 का चार्टर एक्ट अंतिम चार्टर एक्ट था. इस एक्ट के तहत भारतीय विधान तंत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गए। यधपि भारतीय गवर्नर जर्नल की परिषद को ऐसे विधायी प्राधिकरण के रूप में जारी  रखा गया जो समूचे ब्रिटिश भारत के लिए विधियाँ बनाने में सक्षम थी।

  • विधायी कार्यो के लिए परिषद में छः विशेष सदस्य जोरकर इसका विस्तार कर दिया गया। इन सदस्यों को विधियाँ  तथा विनियम बनाने के लिए बुलाई गई बैठको के अलावा परिषद् में बैठने तथा मतदान करने का अधिकार नहीं था। इन सदस्यों को विधायी पार्षद कहा जाता था। परिषद् में गवर्नर जर्नल, कमांडर-इन-चीफ, मद्रास, बम्बई, कलकत्ता और आगरा के स्थानीय शासको के चार प्रतिनिधियों समेत अब बारह सदस्य हो गए थे।

1858 का एक्ट 

  • भारत में अंग्रेजी शासन के मजबुती के साथ स्थापित हो जाने के बाद 1857 का विद्रोह अंग्रेजी शासन का तख्ता पलट देने  का पहला संगठित प्रयास था। उसे अंग्रेज इतिहासकारों ने भारतीय ग़दर तथा भारतीयों ने स्वाधीनता के लिए प्रथम युद्ध का नाम दिया।

  • यह एक्ट अंततः 1858 का भारत के उत्तम प्रशासन के लिए एक्ट बना। इस एक्ट के अधीन उस समय जो भी भारतीय क्षेत्र कम्पनी के कब्जे में थे वे सब crawn में निहित हो गए और उन पर (भारत के लिए) प्रिंसिपल सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट के माध्यम से कार्य करते हुए crawn द्वारा तथा उसके नाम सीधे शासन किया जाने लगा।

भारतीय परिषद एक्ट – 1861

  • इसके बाद शीघ्र ही सरकार ने ये यह जरुरी समझा की वह भारतीय प्रशासन की सुधार सम्बन्धी निति का निर्धारण करे। यह ऐसे साधनों तथा उपायों पर विचार करे जिसके द्वारा देश के जनमत से निकट संपर्क स्थापित किया जा सके और भारत की सलाहकार परिषद में यूरोपीय तथा भारतीय गैर सरकारी सदस्यों को शामिल किया जा सके ताकि सरकार द्वारा प्रस्तावित विधानों के बारे में बाहरी जनता से विचारो तथा भावनाओ की अभिव्यक्ति यथा समय हो सके।

  • 1861 का भारतीय परिषद एक्ट भारत के संवैधानिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण और युगांतकारी घटना है। यह दो कारणों से महत्वपूर्ण है। एक तो यह की इसने गवर्नर जर्नल को अपनी विस्तारित परिषद में भारतीय जनता के प्रतिनिधियों को नामजद करके उन्हें विधायी कार्य से संवाद करने का अधिकार दे दिया। दूसरा यह की इसने गवर्नर जर्नल की परिषद की विधायी शक्तियों का विकेन्द्रीयकरण कर दिया तथा उन्हें बम्बई तथा मद्रास की सरकारों में निहित कर दिया।

  •  विधायी कार्यो से लिए कम-से-कम छः तथा अधिक-से-अधिक बारह अतिरिक्त सदस्य सम्मिलित किये गए। उनमे से कम-से-कम आधे सदस्यों का गैर सरकारी होना जरुरी था.

  • 1862 में गवर्नर जर्नल, लार्ड कैनिंग ने नवगठित विधान परिषद् में तिन भारतीयों – पटियाला के महाराजा, बनारस के राजा और सर दिनकर राव को नियुक्त किया। भारत में अंग्रेजी राज की शुरूआत के बाद पहली बार भारतीयों को विधायी कार्य के साथ जोड़ा गया।

  • 1861 के एक्ट में अनेक त्रुटियाँ थी। इनके अलावा यह भारतीय आकांक्षाओ को भी पूरा नहीं करता था इससे गवर्नर जर्नल को सर्वशक्तिमान बना दिया था। गैर सरकारी सदस्य कोई भी प्रभावी भूमिका अदा नहीं कर सकता था। न तो कोई प्रश्न पुछा जा सकता था और न ही बजट पर बहस हो सकती थी।

  • अनाज की भारी किल्लत हो गई और 1877 में जबरदस्त अकाल पड़ा। इससे व्यापक असंतोष फैल गया और स्थिति विस्फोटक बन गई।

  • 1857 के विद्रोह के बाद जो दमनचक्र  चला उसके कारणअंग्रेजो के खिलाफ लोगो  की भावनाए भड़क उठी थी इनमे और भी तेजी आई, जब यूरोपियो और आंगल भारतीयों ने इल्वर्ट विधेयक का जमकर विरोध किया।

  • इल्वर्ट विधेयक में सिविल सेवाओ के यूरोपियो तथा भारतीय सदस्यों के बीच घिनौना  भेद को समाप्त करने की व्यवस्था की गई थी।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म 

  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का श्रीगणेश 1805 में हुआ। ए ओ ह्यूम इसके प्रेनेता  थे और प्रथम अध्यक्ष बने डब्लु सी बनर्जी। श्री ह्यूम अंग्रेज थे। 28 दिसम्बर, 1885 को श्री डब्लु सी बनर्जी की अध्यक्षता में हुए इसके पहले अधिवेशन में ही कांग्रेश ने विधान परिषदों में सुधार तथा इनके विस्तार की मांग की।

  • कांग्रेश के पांचवे अधिवेशन (1889) में इस विषय पर बोलते हुए श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था “यदि आपकी यह मांग पूरी हो जाती है, तो आपकी अन्य सभी मांगे पूरी हो जाएगी, इस पर देश का समूचा भविष्य तथा हमारी प्रशासन व्यवस्था का भविष्य निर्भर करता है।

  • 1889 के अधिवेशन में जो प्रस्ताव पारित  किया गया, उसमे गवर्नर जर्नल  की परिषद् तथा प्रांतीय विधान परिषदों में सुधार तथा उनके पुनर्गठन  के लिए एक योजना की रुपरेखा दी गई थी और उसे ब्रिटिश पार्लियामेंट में पेश किये जानेवाले बिल में शामिल करने का सुझाव भी दिया गया था।

  • इस योजना में अन्य बातो के साथ-साथ यह मांग की गई थी की भारत में 21 वर्ष से ऊपर के सभी पुरुष ब्रिटिश नागरिको को मताधिकार तथा गुप्त मतदान पद्धति द्वारा मतदान करना का अधिकार दिया जाये।

भारतीय परिषद् एक्ट 1892

  • भारतीय परिषद् एक्ट 1892 मुख्यतया भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेश के 1889 से 1891 तक के अधिवेशनो में स्वीकार किये गए प्रस्तावों से प्रभावित होकर पारित किया गया था। 1892 के एक्ट के अधिन गवर्नर जर्नल की परिषद् में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढाकर कम से कम 10 तथा अधिक से अधिक 16 कर दी गई (इससे पहले इनकी न्यूनतम संख्या 6 और अधिकतम संख्या 12 थी। परिषदों को उनके विधायी कार्यो के अलावा अब कतिपय शर्तो तथा प्रतिबंधो के साथ वार्षिक वितीय वितरण या बजट पर विचार-विमर्श करने की इजाजत दे दी गई।

मिन्टो-मार्ले सुधार 

  • एक ओर रास्ट्रीय आन्दोलन में गरमपंथियों की शक्ति बढती जा रही थी दूसरी ओर भारतीय कांग्रेस में नरमपंथी लोग देश के कार्य संचालन में भारतीयों के और अधिक प्रतिनिधित्व के लिए अनथक अभियान चला रहे थे. इसे देखते हुए तत्कालीन  सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया लार्ड मार्ले तथा तत्कालीन वायसराय लार्ड मिन्टो ने मिलकर 1906-08 के दौरान कतिपय संवैधानिक सुधार प्रस्ताव तैयार किये, इन्हें आमतौर पर मिन्टो-मार्ले सुधार प्रस्ताव कहा जाता है।

  • इनका मकसद था कि विधान परिषदों का विस्तार किया जाए तथा उनकी शक्तियों और कार्य क्षेत्र को बढ़ाया जाए, प्रशासी परिषदों में भारतीय सदस्य नियुक्ति किये जाए, जहाँ पर ऐसी परिषदे नहीं है वहां पर ऐसी परिषदे स्थापित की जाए, और स्थानीय स्वशासन प्रणाली का और विकाश की जाए।

भारतीय परिषद् एक्ट 1909

  • 1909 के एक्ट और इसके अधीन बनाए गए विनियमों द्वारा परिषदों तथा उनके कार्य क्षेत्र का और अधीन विस्तार करके उन्हें अधिक विस्तार करके उन्हें अधिक प्रतिनिधित्व एवम प्रभावी बनाने के लिए उपबंध किये गये। भारतीय विधान परिषद् के अतिरिक्त सदस्यों की अधिकतम संख्या 16  से बढाकर 60 कर दी गई। इस एक्ट के अधीन अप्रत्यक्ष निर्वाचक के सिद्धांत को मान्यता दी गई। निर्वाचित सदस्य ऐसे निर्वाचक क्षेत्रो से चुने जाने थे यथा नगरपालिकाये जिला तथा स्थानीय बोर्ड विश्वविधालय वाणिज्य तथा व्यापार संघ मंडल और जमींदारो  या चाय बागान मालिको जैसे लोगो के समूह।

  • ऐसे नियम बना  दिए गए जिससे सभी प्रांतीय विधान परिषदों में गैर सरकारी सदस्यों का बहुमत हो, किन्तु केन्द्रीय विधान परिषद में सरकारी सदस्यों का ही बहुमत बना रहे। इन विनियमों में मुस्लिम सम्प्रदाय के लिए पृथक निर्वाचक मंडल तथा पृथक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था भी कर दी गई। इस प्रकार पहली बार सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के घातक सिद्धांत का सूत्रपात हुआ।

  • इस एक्ट के द्वारा लागु किये गए सुधार जिम्मेदार सरकार की मांग को न तो पूरा करते थे, क्योंकि उसके अधीन स्थापित परिषदों में जिम्मेदारी का अभाव था जो जन-निर्वाचित  सरकार की विशेषता होती है।

मोंटेग्यू घोषणा 

  • 20 अगस्त, 1917 को अंग्रेजी राज के दौड़ान भारत के उतार-चढ़ाव वाले इतिहास में पहली बार इस वक्यत्व्य के द्वारा भारत में जिम्मेदार सरकार की स्थापना का वादा किया गया।

मोंटफोर्ट रिपोर्ट 1918

  • भारतीय संवैधानिक सुधार सम्बन्धी रिपोर्ट मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड या मोंटफोर्ट रिपोर्ट के नाम से जानी जाती है।इसे सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया श्री मोंटेग्यू तथा भारत के वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड ने संयुक्त रूप से तैयार किया जिसे जुलाई 1918 में प्रकाशित की गई। इस रिपोर्ट में स्वशासी डोमिनियन के दर्जे की मांग की पूर्ण उपेक्षा की गई।

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