मौलिक-अधिकार
- K.K. Lohani
- Jul 7, 2018
- 3 min read
Updated: Mar 15, 2021

मौलिक अधिकार
मौलिक अधिकार (अनुच्छेद : 12 से 35)
मौलिक अधिकार वे अधिकार होते हैं जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक एवं अपरिहार्य होने के कारण संविधान के द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं और व्यक्ति के इन अधिकारों में राज्य के द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।
मौलिक अधिकारों को मौलिक कहे जाने के तीन प्रमुख कारण हैं
व्यक्ति के भौतिक नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास के लिए ये अधिकार नितांत आवश्यक होते हैं इसके अभाव में उसके स्वस्थ व्यक्तित्व का विकास नहीं हो सकता है।
इन अधिकारों को देश की मौलिक विधि अर्थात संविधान में स्थान प्राप्त किया जाता है और साधारण सांविधिक संशोधन की प्रक्रिया के अतिरिक्त इसमें और किसी प्रकार से परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।
मौलिक अधिकारों को वैधानिक शक्ति प्राप्त है अर्थात व्यवस्थापिका या कार्यपालिका द्वारा इनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। यदि सरकार के इन अंगों द्वारा मौलिक अधिकारों के विरुद्ध कोई भी कार्य किया जाए तो न्यायपालिका द्वारा इन्हें असंविधानिक भी घोषित किया जा सकता है क्योंकि मौलिक अधिकार न्यायालय द्वारा परावर्त्य भी है।
हालांकि समय विशेष पर इसे निलंबित करने और इसे रोके जाने का भी प्रावधान होता है इसकी सीमाएं भी तय होती है तथा राज्य सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए इसकी सीमाएं तय करती है।
मानवाधिकार प्रकृति प्रदत होता है जबकि मौलिक अधिकार विधि या संविधान द्वारा दिए जाते हैं। मानवाधिकारों की कोई सीमा नहीं होती है जबकि मौलिक अधिकार सीमित होते हैं।
मूल अधिकारों का सर्वप्रथम मांग ब्रिटेन में तब हुआ जब 1215 में सम्राट जॉन को ब्रिटिश की जनता ने प्राचीन स्वतंत्रताओं को मान्यता प्रदान करने हेतु मैग्नाकार्टा पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य कर दिया।
भारत में मौलिक अधिकार की सर्वप्रथम मांग संविधान विधेयक 1895 के माध्यम से की गई थी ।
जब संविधान का प्रवर्तन किया गया उस समय मूल अधिकारों की संख्या सात थी लेकिन 44 वें संविधान संशोधन द्वारा संपत्ति के मूल अधिकार को समाप्त करके इस अधिकार को विधिक अधिकार बना दिया गया है।
मूल अधिकारों का उद्देश्य
एक ऐसी सरकार का गठन करना जिसका उद्देश्य व्यक्तियों के हितों में अभिवृद्धि करना हो।
सरकार की शक्तियों को सीमित करना, जिससे सरकार नागरिकों की स्वतंत्रता के विरुद्ध अपनी शक्ति का प्रयोग ना कर सके।
नागरिकों के व्यक्तित्व का विकास करना।
मूल अधिकार तथा विधिक अधिकार में अंतर
मूल अधिकार संविधान द्वारा प्रदान किए गए हैं जबकि विधिक अधिकार अधिनियमो द्वारा प्रदान किए गए हैं।
मूल अधिकार समाप्त या कम नहीं किए जा सकते, जबकि विधिक अधिकार समाप्त या कम किए जा सकते हैं।
मूल अधिकार उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों द्वारा प्रवर्तित किए जाते हैं। जबकि विधिक अधिकार सामान्य न्यायालयों द्वारा प्रवर्तित किए जाते हैं
मूल अधिकारों का उल्लंघन कुछ अपवादों को छोड़कर केवल राज्य द्वारा किया जा सकता है जबकि विधिक अधिकारों का उल्लंघन सामान्य व्यक्तियों एवं विधिक व्यक्तियों द्वारा ही किया जा सकता है।
भारतीय संविधान द्वारा भारतीय नागरिकों को प्राप्त मूल अधिकार
भारतीय संविधान भारतीय नागरिक को मूल रूप से छह मौलिक अधिकार प्रदान करता है।
भारतीय संविधान द्वारा विदेशी नागरिकों को प्राप्त मूल अधिकार
भारतीय संविधान द्वारा विदेशी नागरिकों को मूल रूप से 4 मौलिक अधिकार प्रदान करता है इसे मानवाधिकार भी कहा जाता है।
भारतीय संविधान भारतीय नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता का समान अधिकार ( 25 से 28) प्रदान करता है।
भारतीय संविधान के भाग 3 द्वारा नागरिकों को सात मौलिक अधिकार प्रदान किए गए थे, किंतु 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा 20 जून 1979 को संपत्ति के मूल अधिकार (अनुच्छेद 31) को मूल अधिकारों के समूह से बाहर कर दिया गया तथा संविधान के भाग 12 में एक नया अध्याय ( अध्याय–4) जोड़कर संपत्ति के अधिकार को ” अनुच्छेद–300 (क)” के द्वारा विधिक अधिकार बना दिया गया। साथ ही इसी अधिनियम के अंतर्गत अनुच्छेद-19-1-(च) में संशोधन कर संपत्ति की स्वतंत्रता का भी ब्लॉक कर दिया गया।
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